उत्तर प्रदेशबड़ी खबरलखनऊ

बढ़ती जा रही अंदरूनी कलह, जल्द बिखर सकती है समाजवादी पार्टी

  • विधान परिषद चुनाव में भी अंदरूनी कलह का भुगतना पड़ा खामियाजा

लखनऊ। विधानसभा चुनाव हारने के बाद से ही समाजवादी पार्टी में अंदरूनी कलह और गुटबाजी बढ़ गयी है। यह गुटबाजी विधान परिषद के चुनाव में भी स्पष्ट देखने को मिली। आजमगढ़ जैसी सीट जहां सपा के सभी विधायक हैं, वहां समाजवादी पार्टी प्रत्याशी तीसरे नम्बर पर चले गये। सियासी गलियारों में चर्चा है कि सपा के एक प्रमुख नेता पार्टी की दो फाड़ करने में लगे हुए हैं। संभव है आने वाले दिनों में समाजवादी पार्टी बिखर जाय।

अंदरूनी कलह की ही देन है कि विधान परिषद चुनाव में सपा प्रत्याशियों के कहने के बावजूद सपा विधानसभा सदस्यों और विधानपरिषद के प्रत्याशियों की किसी दिन संयुक्त बैठक तक नहीं बुलाई गयी। सपा के विधायकों ने विधान परिषद चुनाव से ही खुद को किनारे रखा। इसका खामियाजा समाजवादी पार्टी को भुगतना पड़ा।

वहीं समाजवादी पार्टी के विधायक भी विधानसभा की हार के बाद गुटबाजी करने में जुटे हुए हैं। उन पर से धीरे-धीरे उच्च पदाधिकारियों का नियंत्रण समाप्त होता जा रहा है। पश्चिम के दो धुरधंर समाजवादी नेता अभी पार्टी को तोड़ने की कोशिश में जुटे हुए हैं। समाजवादी सूत्रों के अनुसार यदि जल्द ही खुलकर बात नहीं हुई तो आने वाले दिनों में पार्टी बिखर जाएगी। सपा के अंदरूनी कलह का ही नतीजा रहा कि आजमगढ़-मऊ जैसी सीट विधानसभा चुनाव में साइकिल के आगे सभी पस्त हो गये, वहां भी समाजवादी पार्टी विधान परिषद चुनाव में तीसरे नम्बर पर खिसक गयी।

सपा के विश्वस्त सूत्र का कहना है कि विधानसभा चुनाव में भी कई प्रत्याशी अंदरूनी कलह के कारण ही हार गये। प्रयागराज में एक विधानसभा प्रत्याशी अपने बगल की सीट पर अपनी पार्टी के प्रत्याशी को हराने में लगे रहे। इससे वह प्रत्याशी तो हार ही गया, वह खुद भी हार गये। ऐसी सीटों पर हार की गहन समीक्षा होनी चाहिए थी लेकिन सिर्फ औपचारिक बैठक करके ही मामले को निपटा दिया गया।

कई सपा नेताओं का मानना है कि विधानपरिषद चुनाव से पहले कोई रणनीति न बनाने से भी नेता नाराज हैं। इससे यह संदेश जा रहा है कि सपा मुखिया ने नेताओं को भगवान भरोसे छोड़ दिया है। वह कब पुलिस के शिकार हो जायं। राजनीति की भेंट चढ़ जायं, कहा नहीं जा सकता। ऐसे में नेताओं में नाराजगी होना स्वाभाविक है। पश्चिम के एक बड़े सपा नेता आज तक जेल की सलाखों में हैं लेकिन पार्टी ने उनके लिए कोई बड़ा आंदोलन नहीं छेड़ा।

राजनीतिक विश्लेषक राजीव रंजन सिंह का कहना है कि किसी भी पार्टी की दो बार हार के बाद उसे सहेजना मुश्किल होता है। ऐसे में शीर्ष नेतृत्व के कौशल की परीक्षा होती है लेकिन यहां तो अखिलेश यादव मौन हैं। उनका पार्टी को सहेजने पर ध्यान कम, घर के दुश्मनों को निपटाने पर ज्यादा ध्यान है।

संबंधित समाचार

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button