पंजाब विधानसभा चुनावों पर किसान आंदोलन को हावी होता देख, केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने कृषि कानूनों को वापसी के ऐलान के साथ ही विपक्ष के सारे हथियारों को ध्वस्त कर दिया है. इन कानूनों की वजह से भाजपा अभी तक पंजाब के लोगों के विरोध को झेल रही थी और यही कारण था कि बीजेपी नेता चुनावी प्रचार के लिए भी नहीं निकल पाते थे. आगामी विधानसभा चुनावों के मद्देनजर इस फैसले को बीजेपी के मास्टर स्ट्रॉक के तौर पर देखा जा रहा है. लेकिन पंजाब में बीजेपी की डगर आसान नहीं है… 117 सीटों पर होने वाले विधानसभा चुनावों में फिलहाल बीजेपी के खाते में सिर्फ 3 विधानसभा सीटें हैं. इस बार पंजाब विधानसभा चुनाव (Punjab Assembly Election) में सत्तारूढ़ कांग्रेस (Congress), अकाली दल (Akali Dal)-बहुजन समाज पार्टी (Bahujan Samaj Party) गठजोड़, आम आदमी पार्टी (AAP) और भाजपा के बीच बहुकोणीय मुकाबला होने की उम्मीद है. ऐसे में पंजाब में मजबूत दिख रही कांग्रेस और आम आदमी पार्टी को चित करने के लिए उसे एक और बड़ा दांव खेलना होगा.
इस बार सियासी बयार का रुख अलग
दरअसल, 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी और अकाली दल साथ लड़े थे जिसमें अकाली दल को 15 और बीजेपी को सिर्फ 3 सीटों पर जीत मिली थी. वहीं, 117 सदस्यीय पंजाब विधानसभा में 77 सीटों पर जीत का परचम लहराकर कांग्रेस ने भाजपा गठबंधन के किले को ध्वस्त कर दिया था. बीजेपी और अकाली के गठजोड़ की हार में 20 सीटों पर जीत दर्ज करने वाली आम आदमी पार्टी ने भी अहम भूमिका निभाई थी. AAP ने कई सीटों पर बीजेपी के वोट काटे थे जिससे कांग्रेस के लिए रास्ता साफ हो गया था. लेकिन ये कहानी है पिछले चुनाव की…. इस बार सियासी बयार का रुख अलग नजर आ रहा है. बस बीजेपी के लिए जरूरत है तो इसे समय से लपकने की.
साल 2017 के पंजाब विधानसभा चुनावों के बाद तीन कृषि कानून का मुद्दा उठा और राज्य के अधिकतर लोगों को इसके खिलाफ जाता देख अकाली दल ने भी इस कानून से खुद को किनारा करने का फैसला कर लिया. यही कारण रहा कि अकाली दल ने 25 सालों चली आ रही बीजेपी से दोस्ती को एक झटके में तोड़ दिया था. लेकिन अब टूट की बड़ी वजह रहे तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने का ऐलान हो गया है, ऐसे में पंजाब की राजनीति में मची सियासी उठापठक के बीच बीजेपी और अकाली दल की जोड़ी एक बार फिर बन सकती है. सियासी हल्कों में भी इस पर चर्चा जारी है कि क्या बीजेपी और अकाली दल फिर से चुनावों में साथ जा सकते हैं?
अमरिंदर की भूमिका हो सकती है अहम
इधर, कृषि कानूनों की वापसी के फैसले के साथ ही सूबे पूर्व मुखिया अमरिंदर सिंह भी जनता में बीजेपी के साथ जाने के अपने रास्तों को खुला हुआ दिखाने में लगे हैं. वो ये जाहिर करने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं कि मोदी सरकार ने कृषि कानूनों को वापस लेने का ऐलान कर पंजाब के किसानों की भलाई के लिए बड़ा कदम उठाया है. यानी अब अगर वो बीजेपी के साथ चले भी जाएं तो वही समर्थन हासिल कर पाएंगे जो कांग्रेस में रहते हुए साल 2017 के विधानसभा चुनावों में उन्हें मिला था. प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद सिंह ने संकेत दिया कि वह किसानों के मुद्दे पर भाजपा नीत केंद्र सरकार के साथ काम करने को तैयार हैं. सिंह ने हाल में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से भी मुलाकात की थी.
उन्होंने शुक्रवार को कहा, ‘मैं इस विषय को केंद्र के समक्ष एक साल से अधिक समय से उठा रहा था और नरेंद्र मोदी जी तथा अमित शाह जी से मुलाकात कर उनसे हमारे अन्नदाता की आवाज सुनने का अनुरोध किया था. सचमुच में खुश हूं कि उन्होंने किसानों की सुनी और हमारी चिंताओं को समझा. मैं किसानों के विकास के लिए भाजपा नीत केंद्र (सरकार) के साथ करीबी तौर पर काम करने के लिए उत्सुक हूं. मैं पंजाब के लोगों से वादा करता हूं कि मैं चैन से तब तक नहीं बैठूंगा जब तक कि मैं हर आंख से आंसू नहीं पोंछ देता.’ ऐसे में अगर अमरिंदर सिंह अगर बीजेपी से हाथ मिलाते हैं तो इससे पार्टी को एक और जमीनी नेता का साथ मिल जाएगा.
दलित वोट बैंक पर नजर
कांग्रेस ने अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री के पद से हटाकर चरणजीत सिंह चन्नी के रूप में मुख्यमंत्री चुनकर दलित वोट बैंक को रिझाने की कोशिश की है. वहीं अकाली दल भी ऐलान कर चुका है कि चुनावों में जीत मिलने पर उपमुख्यमंत्री दलित समाज से ही होगा. बहुजन समाज पार्टी के साथ चुनाव लड़ने का फैसला भी अकाली दल ने इसिलिए लिया कि उसे पिछड़े समुदाय के लोगों का साथ मिल सके.
कांग्रेस के लिए संकट ही संकट
पहले अमरिंदर का साथ छूटा और अब पार्टी की खेमेबाजी ने कांग्रेस के लिए आगामी चुनाव की राह को और जटिल बना दिया है. अमरिंदर सिंह के इस्तीफे से लेकर अभी तक कांग्रेस पंजाब में एकजुट नहीं दिखी है. नवजोत सिंह सिद्धू और चरणजीत सिंह चन्नी के बीच के मतभेद भी खुलकर सामने आ गए हैं. फिर चाहे पंजाब के एडवोकेट जनरल के चुनाव की बात हो या फिर कैबिनेट में लोगों को विभाग सौंपे जाने का मुद्दा हो, दोनों के बीच अपनी पसंद के चेहरों को लेकर एक दीवार सी खड़ी हो गई है. आकालमान भी तमाम कोशिशों के बावजूद इस दीवार को गिराने में विफल नजर आ रहा है. पार्टी के अंदर की खेमेबाजी का असर आगामी चुनाव पर पड़ना तय माना जा रहा है. कारण ये है कि पार्टी एकजुट होकर अभी तक लोगों के बीच यह संदेश पहुंचाने में विफल रही है कि वो एक हैं और पंजाब के हित में आगे बढ़ रहे हैं. रही-सही कसर कलह को हवा देकर, विपक्ष पूरा कर दे रहा है.
इसके अलावा अमरिंदर सिंह फैक्टर भी पार्टी को परेशान करने के लिए काफी है. दरअसल, अमरिंदर सिंह ही वो चेहरा थे जिन्होंने 2017 में अपने दम पर 10 साल के सूखे के बाद पार्टी की राज्य में वापसी कराई थी. ऐसे में उनके पार्टी में नहीं होने का खामियाजा भी पार्टी को भुगतना पड़ सकता है. मनीष तिवारी जैसे पार्टी के वरिष्ठ नेता भी लगातार अपनी ही पार्टी के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं. इन्हें अमरिंदर गुट का नेता माना जाता है. अमरिंदर सिंह के इस्तीफे के दौरान भी मनीष तिवारी ने केंद्रीय नेतृत्व पर सवाल खड़े किए थे. हाल के दिनों में वो चन्नी सरकार और सिद्धू के पक्ष में लिए गए फैसलों के लिए भी आलाकमान को खड़ी-खड़ी सुना चुके हैं. ऐसे में कांग्रेस को चुनाव में बेहतर रिजल्ट के लिए किसी भी कीमत पर इन चुनौतियों से पार पाना होगा.
मजबूत पकड़ बनाती दिख रही AAP
आम आदमी पार्टी ने बहुत तेजी से पंजाब में अपने पांव पसारे हैं. पिछले चुनावों में 20 सीटों पर जीत दर्ज करने वाली इस पार्टी को भी इस बार के चुनावों में काफी उम्मीदें हैं. पार्टी नेतृत्व के साथ-साथ खुद मुखिया अरविंद केजरीवाल के पंजाब दौरे भी शुरू हो गए हैं. उन्होंने पंजाब की जनता से सरकार बनने पर फ्री बिजली, सरकारी स्कूल, अस्पताल, पानी और सड़कों के विकास का वादा किया है. साथ ही उन्होंने पंजाब के बड़े वर्ग वाले किसान वोटर्स को रिझाने के लिए उन्हें बर्बाद फसल का मुआवजा देने का वादा किया है.
हाल की एक रैली में उन्होंने कहा कि अगर आम आदमी पार्टी की सरकार बनती है तो वो किसानों को खुदकुशी नहीं करने देंगे और उन्हें पूरा मुआवजा मिलेगा. विशलेषक भी मानते हैं कि इस बार केजरीवाल की पार्टी को पंजाीब में बढ़त मिल सकती है. हाल के एक सर्वे में भी आम आदमी पार्टी को पंजाब में सबसे बड़ी दो पार्टियों में शामिल किया था. ऐसे में बीजेपी को आम आदमी पार्टी की बढ़त को खत्म करने के लिए गठबंधन का दांव चलना होगा. एक कयास ये भी है कि अगर बीजेपी अमरिंदर और अकाली दल को साथ लाने में कामयाब रहती है तो कांग्रेस और AAP की उम्मीदों को बड़ा झटका दे सकती है.